Monday, February 23, 2015
वैंश
मधुर बोली
मुसुक्क हा“सी
आखा“ खोली
पुलुक्क हेरी
पुष्ठ शरीर
लाग्छ रहर
प्रतापी शिर
गला गुलावी
आखा“ लोभी
मन पापी
फूर्तिला औंला
पातला परेला
शितल छाया“
बैंशको माया
गोल ओठ
सफा तिलक
चुच्चो नाक
कालो कपाल
सुन्दर बैंश
मीठो बैंश ।
०६१ असार, घर
Labels:
Subash Rai Poem,
कबिता
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